मुहम्मद उमर कैरानवी: March 2018

Wednesday, March 28, 2018

Farooq-khan-hindi-quran-translator--onesura-different-translation-

क़ुरआन का निगेहबान अल्लाह है :
       ''बेशक हम ही ने क़ुरआन नाज़िल किया और हम ही तो उसके निगेहबान भी हैं'' (15:9)
 
बंदे खताओं के पुतले हैं, जमात इस्‍लामी के डाक्‍टर फारूक खां  का किया हुआ कुरआन की सूरत 24:26 का  हिंदी अनुवाद तीन तरह से मिलता है

गन्दी औरते गन्दें मर्दों के लिए (मुनासिब) हैं online
गंदी चीज़े गन्दें लोगों के लिए है online
मौलाना मौदूदी के उर्दू अनुवाद को हिंदी किया तो लिखा
''नापाक स्त्रीयां नापाक पुरूषों के लिए हैं.. ''

 
 
 
 
दोनों तर्जुमे अभी ऑनलाइन हैं 
इस आयत पर सिकंदर अहमद कमाल ने फ़ारूक़ खान से बात की उन्होंने बदल दिया इस आयत का तर्जुमा।

गन्दी औरते गन्दें मर्दों के लिए (मुनासिब) हैं और गन्दे मर्द गन्दी औरतो के लिए और पाक औरतें पाक मर्दों के लिए (मौज़ूँ) हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए लोग जो कुछ उनकी निस्बत बका करते हैं उससे ये लोग बुरी उल ज़िम्मा हैं उन ही (पाक लोगों) के लिए (आख़िरत में) बख़्शिस है (24:26) farooq khan and nadWi


 गंदी चीज़े गन्दें लोगों के लिए है और गन्दे लोग गन्दी चीज़ों के लिए, और अच्छी चीज़ें अच्छे लोगों के लिए है और अच्छे लोग अच्छी चीज़ों के लिए। वे लोग उन बातों से बरी है, जो वे कह रहे है। उनके लिए क्षमा और सम्मानित आजीविका है (24:26)

Corrupt women are for corrupt men, and corrupt men are for corrupt women; good women are for good men and good men are for good women. The latter are absolved from anything they may say; forgiveness and an honourable provision await them. (24:26)  
Translator: waheed uddin khan
 
सिकंदर अहमद कमाल इस आयत बारे में लिखते हैं
 अशुद्ध कर्म अशुद्ध इन्सानों के लिए हैं और अशुद्ध आदमियों से अशुद्ध कार्य ही होते हैं और अच्छे कर्म और अच्छी बातें अच्छे लोगो के लिए हैं और अच्छे लोग अच्छे कर्म ही करते है वह कभी बुरी बातो के पास नही जाते और आस्तिको का दामन पवित्र है उन बातो से जो बनाने वाले बनाते है और सम्मान की जीविका हैं (26) {64ः10,11}
नोट:- सूरत नूर की आयत 26 का अनुवाद यह किया गया है कि पतित स्त्रीयां पतित पुरूषों के लिए हैं और पतित पुरूष पतित स्त्रीयों के लिए हैं या पवित्र स्त्रीयां पवित्र पुरूषों के लिए है और पवित्र पुरूष पवित्र स्त्रीयों के लिए हैं यदि इस अनुवाद को उचित मान लिया जाय जबकि यह अनुवाद मिथ्या है तो महामना लूत अ0 की पत्नी बुरी थी और फिरऔन की पत्नी सदाचारी आस्तिक थी एक दुष्ट और एक आस्तिक और दोनो में से दुष्ट स्त्री सदाचारी नबी की पत्नी और आस्तिक सदाचारी स्त्री एक नास्तिक फिरऔन की पत्नी थी. इस प्रकार आयत का अनुवाद पतित पुरूष और पतित स्त्री वाला अनुचित है उचित भाव यह है जो मैंने लिखा है.
    इसकी पुष्टि स्वयं आयत (24:23) और (24:26) कर रही है (24:23) में भी सीगा (विभाग) बहुवचन है और (24:23) में भी सीगा बहुवचन है और न ही आयात में किसी एक स्त्री का नाम है जिनमें कहा गया है कि बुरी बातों से आस्तिक पुरुष और आस्तिक स्त्री पवित्र है जो यह कपटि लोग बना रहे हैं.
    अब देखा जाए कि यह मिथ्या अनुवाद क्यों किया गया? यह इसलिए कि कथनों की पुस्तकों में एक काल्पनिक कथा अंकित है जिसमें श्रीमती आयशा र0 पर दोषारोपण किया गया है. इस दोषारोपण की मुक्ति (24:26) में कर दी गई है यह तो सत्य है कि (24:26) में दोषारोपण बुरी बातों का खण्डन किया गया है परन्तु क्या अनुवाद उचित किया गया है और श्रीमती आयशा र0 पर आरोप ठीक है? न तो अनुवाद ही पतित स्त्री पुरुष वाला उचित है और न ही आयशा र0 पर आरोप ठीक है पुरी सूरत में किसी स्थान पर भी न आयशा का नाम है और न ही जमीर एक वचन की है. अपितु सीगा बहुवचन है अतः यह घटना इफक आयशा वाली बिल्कुल मिथ्या है. जिसका विस्तार मैंने अपनी पुस्तक ‘नामूस रसूल’ में किया है अवलोकन हो.
    वास्तव में कपटियों ने मुसलमानों में मतभेद और झगड़ा कराने के लिए कुछ ऐसे आरोप आस्तिक पुरुषों और स्त्रियों पर लगाए या लगाऐंगे जो मिथ्या होंगे सादा सरल मुसलमान उनकी पुष्टि न करते हुए आपस में चर्चा करने लगे इस अनुचित और आशंका पूर्ण बात से बचाने के लिए ईश्वर ने मुसलमानों को यह बताया कि ऐ मुसलमानों

ऐसे अवसरों पर ऐसा व्यवहार न करना यह ठीक नहीं है अपितु करना यह है कि यदि कोई अनुचित बातें सुनो तो उसको अपने बड़ों के पास ले जाओ वह उसकी छान-बीन करेंगे और यथार्थ को पा लेंगे और आरोप लगाने वालों से कहेंगे कि तुम अपने चार साक्षी लाओ यह विधि बताई है जिसको ईश्वर ने अपनी कृपा और अनुकम्पा कहा है और सूरत नूर का नाम ही नूर इसलिए है कि इसमें सब बातें वह है जिन पर व्यवहार करने से एक उत्तम प्रकाश युक्त समाज अस्तित्व में आ जाता है और प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है (नूर)
    पूरी सूरत में किसी भी शब्द से यह प्रकट नहीं हो रहा कि यह आरोप आयशा पर था जो एक युद्ध से वापसी पर घड़ा गया. इस आरोप के प्रभाव में तो कपटियों की ओर से पूरे आस्तिक आते थे जिसका खण्डन (24:26) में कर दिया गया है और बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि आस्तिक जो होगा वह कभी अनुचित कार्य नहीं करेगा. वह सदैव उचित कार्य करेगा। अतः उनकी ओर यह आरोप मिथ्या है.
    इफक से सम्बन्धित जो कथन वर्णन किए जाते हें उन पर विचार करने से यह घटना बिल्कुल मिथ्या सिद्ध होती है उदाहरणतः धर्म युद्ध से वापसी पर सैना रात्रि में विश्राम कर रही थी आयशा शौच करने के लिए सैना से बाहर गई. उसी समय सैना चल दी आयशा र0 छूट गई और बाद में एक सहाबी उनको लेकर दोपहर के समय सेना में आए.
    विचारणीय बात यह है कि सेना में केवल आयशा र0 ही एक स्त्री थी और न थी? जबकि और भी अवश्य होंगी. ऐसी दशा में आयशा स्त्रियों के साथ जाती जैसा स्त्रियों का नियम है यदि मान लिया जाये केवल वही थीं तो मुहम्मद स0 से बताकर जाना था या मुहम्मद स0 उनके साथ जाते या मुहम्मद स0 उनकी प्रतीक्षा करते. यदि यह भी सम्भव नहीं तो शौच के लिए सेना से दूर न जाती कहीं पास में ही बैठ जाती. रात्रि ही तो थी और जब सेना चलती तो आ जाती ऐसा तो नहीं था कि सेना में न तो कुछ सामान था और आदमी भी थोड़े थे और बिना किसी आहट के चल दिए. आयशा को सूचना न हुई? ऐसा नहीं है अपितु पूरी सेना थी और ऊंट, घोड़े, खच्चर इत्यादि साथ थे उन पर साज बान्ध कर सामान लादना था. ऐसी दशा में घोड़े हिनहिनाते, ऊंट बिलबिलाते, आदमी चलते फिरते ध्वनी देते एक दूसरे को तो आयशा को सूचना हो जाती और वह आ जाती.
    सब बातों को छोड़ों केवल एक रखो कि चलते समय मुहम्मद स0 तो अवश्य ही आयशा को देखते इसके अतिरिक्त डोली उठाने वाले भी अनुमान न कर सके कि डोली खाली है या भरी. क्या मुहम्मद स0 (नाऊजू) ऐसे अनजान थे कि अपनी पत्नी को भी ज्ञात न कर सके और चल दिए और दोपहर तक समाचार न लिया. अरे मार्ग में कहीं तो फजर की नमाज़ पढ़ी होगी वहां देखते. परन्तु यह कुछ न हुआ और सेना चलती रही ईश्वर बुद्धि दे.
    परन्तु भाईयो! यह कुछ नहीं हुआ अतः यह कथा बिल्कुल मिथ्या है दोषारोपण है. और आगे सुनो कपटियों ने आयशा को एक साहबी के साथ अकेले आते देखकर दोषारोपण आरम्भ कर दिया. आरोप लगाने वाले जाने पहचाने थे. मुहम्मद स0 ने ईश्वर के बताए नियमानुसार उनसे चार साक्षी नहीं मांगे और लगभग एक माह तक यह बातें ऐसे ही भ्रमण करती रहीं. तब जाकर कहीं मुहम्मद स0 ने मस्जिद में मुसलानों से कहा कि मेरी सहायता करो. इस छान-बीन के समय अन्सार के दो परिवारों में झगड़ा हुआ उन झगड़ा करने वालों में एक नाम साद बिन मआज का भी है. कि उसने खड़े होकर कहा कि ऐ ईश्वर के रसूल यदि आरोप लगाने वाला मेरे परिवार का व्यक्ति है तो मैं उसे वध कर दूं. परन्तु क्या साद बिन मआज उस समय जीवित थे? वह तो लगभग दस-ग्यारह माह पहले एक युद्ध में घायल होकर मृतक हो गए थे. फिर वह कहां से आ गए? इसलिएभी इफक की कथा मिथ्या है. इस झगड़े को मुहम्मद स0 ने समझाकर समाप्त किया और छान-बीन पूरी न हो सकी. और जब मस्जिद में कहा था तो मुहम्मद स0 ने पूरे विश्वास के साथ कहा था कि आयशा निर्दोष है.
    फिर श्रीमान अली से ज्ञात किया तो उन्होंने कहा आयशा को छोड़ दो उनके सिवा और बहुत स्त्रियां हैं उनसे विवाह कर लो. उसामा बिन जै़द से ज्ञात किया श्रीमती जैनब बिनते जहश से ज्ञात किया उन्होंने प्रशंसा की. फिर आपने बुरेरा सेविका से ज्ञात किया उन्होंने भी कुछ कमी के साथ प्रशंसा की. परन्तु बुरेरा सेविका उस समय आपके पास नहीं थी फिर ज्ञात कहां और किससे किया?
    आयशा से भी प्रश्न किया उन्होंने क्या प्रश्न किया हर व्यक्ति जानता है पुस्तकों में लिखा है. यह प्रसंग लगभग एक माह तक चलता रहा. इस चक्र में वही भी न आई. जब मुहम्मद स0 अधिक व्याकुल हो गए तो ईश्वर ने आयत 26 अवतरित करके आयशा को निर्दोष होने की घोषणा की और सबको बड़ा हर्ष हुआ क्या आयत में आयशा का नाम है?
    विचित्र बात है यह प्रसंग काफी दिनों तक चलता रहा और ईश्वर के नियमानुसार कुछ न हुआ? इन सब बातों पर विचार करने से यह बात सामने आती है कि यह कथा मिथ्या है अतः हमें तुरन्त अपनी पुस्तकों से इसको निकाल देना चाहिए. अन्यथा जो आरोप किसी ने घड़ा था वह चलता रहेगा और आरोप रसूल स0, सहाबा और अजवाज सब पर है अतः अब यह समाप्त होना चाहिए.
 
 
 
ناپاک کام ناپاک انسانوں کے لئے ہیں اور ناپاک آدمیوں سے ناپاک کام ہی ہوتے ہیں. اور اچھے کام اوراچھی باتیں اچھے لوگوں کے لئے ہیں اور اچھے لوگ اچھے کام ہی کرتے ہیں وہ کبھی بُری باتوں کے پاس نہیں جاتے. اور مومنوں کا دامن پاک ہے ان باتوں سے جو بنانے والے بناتے ہیں اور رزق کریم ہے (۲۶) [۶۶:۱۰،۱۱]
نوٹ:۔ سورت نور کی آیت ۲۶؍ کا اکثر ترجمہ یہ کیا گیا ہے کہ خبیث عورتیں خبیث مردوں کے لئے ہیں اور خبیث مرد خبیث عورتوں کے لئے ہیں. پاکیزہ عورتیں پاکیزہ مردوں کے لئے اور پاکیزہ مرد پاکیزہ عورتوں کے لئے ہیں. اگر اس ترجمے کو صحیح مان لیا جائے جب کہ یہ ترجمہ غلط ہے تو حضرت لوطؑ کی بیوی بُری تھی اور فرعون کی بیوی نیک مومن تھی ایک بداور ایک مومن، اور دونوں میں سے بدعورت نیک نبی کی بیوی اور مومن نیک عورت ایک کافر فرعون کی بیوی تھی. اس طرح آیت کا ترجمہ خبیث مرد اور خبیث عورت والا غلط ہے. صحیح مفہوم وہ ہے جو میں نے لکھا ہے. 
اس کی تصدیق خود آیت (۲۴:۲۳ اور ۲۴:۲۶) کررہی ہے . (۲۴:۲۳) میں بھی صیغہ جمع ہے اور (۲۴:۲۶) میں بھی صیغہ جمع ہے اور نہ ہی آیات میں کسی ایک عورت کا نام ہے جن میں کہا گیا ہے کہ بُری باتوں سے مومن مرد اور مومن عورتیں پاک ہیں جو یہ منافق لوگ بنارہے ہیں.
اب دیکھا جائے کہ یہ غلط ترجمہ کیوں کیا گیا ہے؟ یہ اس لئے کہ روایات کی کتابوں میں ایک فرضی قصہ درج ہے جس میں حضرت عائشہؓ پر تہمت لگائی گئی ہے اور اس تہمت کی برات (۲۴:۲۶) میں کردی گئی ہے یہ تو صحیح ہے کہ (۲۴:۲۶) میں تہمت بُری باتوں کی تردید کی گئی ہے مگر کیا ترجمہ صحیح کیا گیا ہے. اور حضرت عائشہ پر الزام ٹھیک ہے؟ نہ تو ترجمہ ہی خبیث عورت آدمی والا صحیح ہے اور نہ ہی عائشہؓ پر الزام صحیح ہے سیاق وسباق میں کسی جگہ بھی نہ عائشہ کا نام ہے اور نہ ہی ضمیر واحد مونث کی ہے. بلکہ صیغہ جمع کا ہے . اس لئے یہ واقعہ افک عائشہ والا بالکل غلط ہے جس کی تفصیل میں نے اپنی کتاب ناموس رسول میں کی ہے ملاحظہ ہو.
حقیقت میں منافقین نے مسلمانوں میں اختلاف اور جھگڑا کرانے کے لئے کچھ ایسے الزام مومن مردوں اور عورتوں پر لگائے یا لگائیں گے جو غلط ہوں گے سادہ مسلمان ان کی تصدیق نہ کرتے ہوئے آپس میں چرچہ کرنے لگیں اس غلط اور خطرناک بات سے بچانے کے لئے اللہ نے مسلمانوں کو یہ بتایا کہ اے مسلمانوں ایسے حالات میں ایسا عمل نہ کرنا یہ ٹھیک نہیں ہے بلکہ کرنا یہ ہے کہ اگر کوئی غلط بات سنوتو اس کو اپنے بڑوں کے پاس لے جاؤ وہ اس کی تحقیق کریں گے اور حقیقت کو پالیں گے اور تہمت لگانے والوں سے کہیں گے کہ تم اپنے چارگواہ لاؤ یہ طریقہ بتایا ہے. جس کو اللہ نے اپنا فضل اور رحمت کہا ہے. اور سورت نور کا نام ہی نور اس لئے ہے کہ اس میں سب باتیں وہ ہیں جن پر عمل کرنے سے ایک بہترین نورانی معاشرہ وجود میں آجاتا ہے اور نور ہی نور ہوجاتا ہے. 
پوری سورت میں کسی بھی لفظ سے یہ ظاہر نہیں ہورہا کہ یہ الزام عائشہ پر تھا. جو ایک جنگ سے واپسی پر گھڑا گیا. اس الزام کی زد میں تو منافقوں کی طرف سے پورے مومن آتے تھے. جس کی تردید (۲۴:۲۶) میں کردی گئی ہے. اور بڑے صاف الفاظ میں کہا گیا کہ مومن جو ہوگا وہ کبھی غلط کام نہیں کرے گا وہ ہمیشہ صحیح کام کرے گا اس لئے ان کی طرف یہ الزام غلط ہے.
افک سے متعلق جوروایات بیان کی جاتی ہیں ان پر غور کرنے سے یہ واقعہ بالکل غلط ثابت ہوتا ہے. مثلاً غزوہ سے واپسی پر لشکر رات میں قیام کررہا تھا. عائشہ حوائج ضروریہ سے فراغت کے لئے لشکر سے باہر گئیں اُسی دوران لشکر نے کونچ کردیا عائشہؓ چھوٹ گئیں اور بعدمیں ایک صحابی ان کو لے کر دوپہر کے وقت لشکر میں آئے.
قابل غور بات یہ ہے کیا لشکر میں صرف عائشہؓ ہی تنہاعورت تھیں اور نہ تھیں؟ جب کہ اور بھی ضرور ہوں گی. ایسی حالت میں عائشہ عورتوں کے ساتھ جاتی جیسا عورتوں کا قاعدہ ہے. اگر مان لیا جائے صرف وہی تھیں تو محمدؐ سے بتاکر جانا تھا یا محمدؐ ان کے ساتھ جاتے یا محمدؐ ان کا انتظار کرتے. اگر یہ بھی ممکن نہیں تو فراغت کے لئے لشکر سے دور نہ جاتیں کہیں پاس میں ہی بیٹھ جاتیں. رات ہی تو تھی. اور جب لشکر چلتا تو آجاتیں. ایسا تو نہیں تھا کہ لشکر میں نہ تو کچھ سامان تھا اور آدمی بھی تھوڑے تھے اور بغیر کسی آہٹ کے چل دئے. عائشہؓ کو خبر نہ ہوئی؟ ایسا نہیں ہے بلکہ پورا لشکر تھا اور اونٹ گھوڑے خچر وغیرہ ساتھ تھے ان پر سازباندھ کر سامان لادھنا تھا. ایسی حالت میں گھوڑے ہنہناتے اونٹ بلبلاتے آدمی چلتے پھرتے آواز دیتے ایک دوسرے کو توعائشہ کو خبر ہوجاتی اور وہ آجاتی.
سب باتوں کو چھوڑو صرف ایک رکھو کہ چلتے وقت محمدؐ توضرور ہی عائشہؓ کو دیکھتے؟ علاوہ ازیں ڈولی اٹھانے والے بھی اندازہ نہ کرسکے کہ ڈولی خالی ہے یا بھری. کیا محمدؐ (نعوذ) ایسے بے خبر تھے کہ اپنی زوجہ کو بھی معلوم نہ کرسکے اور چل دئے. اور دوپہر تک خبرنہ ملی. ارے راستے میں کہیں تو نماز فجر پڑھی ہوگی وہاں دیکھتے مگر یہ کچھ نہ ہوا اور لشکر چلتارہا اللہ عقل دے.
مگر بھائیو! یہ کچھ نہیں ہوا اس لئے یہ واقعہ بالکل غلط ہے. الزام تراشی ہے. اور آگے سنو منافقین نے عائشہ کو ایک صحابی کے ساتھ تنہاآتے دیکھ کر الزام تراشی شروع کردی. الزام لگانے والے جانے پہچانے تھے. محمدؐ نے اللہ کے بتائے قانون کے مطابق ان سے چارگواہ طلب نہیں کئے اور تقریباً ایک ماہ تک یہ باتیں ایسے ہی گردش کرتی رہیں. تب کہیں جاکر محمدؐ نے مسجد میں مسلمانوں سے کہا کہ میری مدد کرو اس تحقیق کے وقت انصار کے دو قبیلوں میں جھگڑا ہوا. ان جھگڑاکرنے والوں میں ایک نام سعد بن معاذ کا بھی ہے کہ اس نے کھڑے ہوکر کہا کہ اے اللہ کے رسول اگر الزام لگانے والا میرے قبیلہ کا آدمی ہے تو میں اسے قتل کردوں. مگر کیا سعد بن معاذ اس وقت زندہ تھے؟ وہ تو تقریباً دس گیارہ ماہ پہلے ایک جنگ میں زخمی ہوکر انتقال کرگئے تھے پھر وہ کہاں سے آگئے؟ اس لئے بھی افک کا قصہ غلط ہے اس جھگڑے کو محمدؐ نے سمجھا کر ختم کیا اور تحقیق پوری نہ ہوسکی اور جب مسجد میں کہا تھا تو محمدؐ نے پورے یقین کے ساتھ کہا تھا کہ عائشہؓ بے قصور ہے.
پھر حضرت علیؓ سے معلوم کیا تو انہوں نے کہا عائشہؓ کو چھوڑدو ان کے سوا اور بہت عورتیں ہیں ان سے نکاح کرلو. اسامہ بن زید سے معلوم کیا حضرت زینب بنت جحش سے معلوم کیا انہوں نے تعریف کی. پھرآپ نے بریرہ خادمہ سے معلوم کیا اس نے بھی کچھ کمی کے ساتھ تعریف کی مگر بریرہ خادمہ اس وقت آپ کے پاس نہیں تھی. پھر معلوم کہاں اور کس سے کیا؟
عائشہؓ سے بھی سوال کیاانہوں نے کیا سوال کیا ہر آدمی جانتا ہے کتابوں میں لکھا ہے یہ معاملہ تقریباً ایک ماہ تک چلتا رہا. اس دوران وحی بھی نہ آئی. جب محمدؐ زیادہ پریشان ہوگئے تو اللہ نے آیت (۲۶) نازل کرکے عائشہ کی برات کا اعلان کیا اور سب کو بڑی خوشی حاصل ہوگئی کیا آیت میں عائشہ کا نام ہے؟ 
عجیب بات ہے یہ قصہ کافی دنوں تک چلتا رہا اور اللہ کے قانون کے مطابق کچھ نہ ہوا؟ ان سب باتوں پر غور کرنے سے یہ بات سامنے آتی ہے کہ یہ قصہ غلط اور جھوٹ ہے. اس لئے ہمیں فوراً اپنی کتابوں سے اس کو نکال دینا چاہیے. ورنہ جو الزام کسی نے گھڑا تھا وہ چلتا رہے گا. اور یہ الزام رسول صحابہ، ازواج سب پر ہے اس لئے اب یہ ختم ہونا چاہیے.

 

Monday, March 19, 2018

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 تحریکِ آزادی اور فکری انقلاب کے داعی
حضرت شاہ ولی اللہ محدث دہلویؒ 

آزادیِ وطن کے بعد ایک مخصوص تنگ نظر ذہنیت نے اکثریتی سیاست کا مزاج بن کر ملک کی دوسری اکثریت ہندوستانی مسلمانوں کو انسانی زندگی کے ہر میدان میں پیچھے رکھنے کے لیے نہ صرف انہیں یکساں آئینی حقوق سے محروم کرنے کی کوشش کی ہے بلکہ ان کی زبان، مذہبی، سیاسی اقدار تمدنی تشخص اور شناخت کو مٹانے کی طے شدہ سازش پر بھی عمل کیاہے۔ اسی ذہنیت نے مسلمانوں کے شاندار ماضی اور درخشاں تاریخ کو آنے والی نسلوں تک نہ پہنچنے دینے کی منظم کوشش کی ہے۔ ہندوستانی ملت اسلامیہ پر یہ ایک ایسی کاری ضرب ہے جس کا درد آج ہر باشعور مسلمان محسوس کررہاہے۔ اس روحانی اذیت کو محسوس کرتے ہوئے حضرت مولانا سید علی میاں ندوی علیہ الرحمہ نے ایک خطبہ میں فرمایاتھا۔
Related image’’ہم کس جرم میں اپنی انسانی عظمت، روحانی بلندی اور پیشوائی کے اس درخشاں ورق کو ہندوستان کی قومی تاریخ سے خارج کرتے ہیں اور کس قصور میں اپنے نوجوانوں کو ان کے کارناموں سے محروم رکھتے ہیں۔ آج ہندوستان میں اس دور کو نظر انداز کرنے کا عمومی رجحان پایا جاتاہے، ہماری جدید تاریخوں میں، ہمارے نصاب کی کتابوں میں، اس کا شایان شان تذکرہ اور ان کی بلند ومنفرد شخصیتوں کا تعارف نہیں ملتا اس سے معلوم ہوتاہے کہ ہماری حب الوطنی اور ہمارے نیشنلزم میں ابھی بہت کچھ کمی اور خامی ہے۔۔۔‘‘
بد قسمتی سے آزادی وطن کے بعد ہمارے ملک میں یہ کھیل کھل کر کھیلا گیا۔مادر وطن کے لیے لازوال قربانیاں پیش کرنے والے مسلم ہیروز کو نظر انداز کرکے تصویر کے صرف ایک رخ کو واضح کرنے کی کوشش کی گئی، اس کا رِ زشت میں ایسے ایسے افراد اور تنظیموں کو بالادستی حاصل ہوئی جن کاوطن کی آزادی اور تعمیر وترقی سے کوئی تعلق کبھی نہیں رہا۔ یہ تنگ نظر سیاست شاید یہ بھول گئی کہ کائناتِ انسانی میں سب سے طاقتور شے ہے سچائی جسے جس قدر دبایا جائے وہ اور زیادہ شدت کے ساتھ ابھرتی ہے۔ ہندوستان کی تاریخ آزادی کا سب سے بڑا سچ یہ ہے کہ اس کا آغاز اس مسلمان بزرگ، عالم باعمل، مفکر انسانیت، مفسرِ حق وصداقت اور فخر قوم و وطن کے فکری جہاد سے ہوتا ہے جس کا نام نامی ہے حضرت شاہ ولی اللہ محد ث دہلویؒ ۔ آپ کا فکری جہاد ایک انقلابی تحریک کی صورت میں ہندو ستانیت کے بے جان قالب میں روحِ حریت بن کر دنیا کے سامنے آیا۔
حضرت شاہ ولی اللہؒ نے اس نازک دور میں انسانی آزادی کے سب سے بڑے ضامن مذہب اسلام کی الوہی تعلیمات کی لو سے شمع آزادی کو روشن کیا جب عظیم مغلیہ سلطنت کا شیرازہ منتشر ہوچکا تھا، نادرشاہ اور احمد شاہ ابدالی کے حملے اس سرزمین کو لہولہان کرچکے تھے، مرہٹے، جاٹ اور سکھ مسلمانوں کے خلاف نبردآزماتھے اور اس خانہ جنگی اور افراتفری کا فائدہ اٹھانے میں مصروف تھا برطانوی قزاقوں کا گروہ یعنی ایسٹ انڈیا کمپنی۔ پرتگالی اور فرانسیسی بھی سونے کی اس چڑیا کو اپنے دام ہوس میں جکڑنے کے لیے سرگرداں تھے۔ یہ شاطر اور سازشی غیر ملکی طاقتیں ہندوستان کو لوٹنے کھسوٹنے میں مصروف تھیں۔ 
’’مسلمان صدیوں سے اس ملک کے مالک رہے تھے اس لیے وہی ان طاقتوں کے نشانے پر تھے لیکن ہندوستانی سماج کا کوئی طبقہ تباہی وبربادی سے محفوظ نہیں تھا۔ بقول جناب فیصل احمد ندوی مصنف (تحریک آزادی میں علماء کا کردار) شاہ صاحب کادور ہندوستان کی اسلامی تاریخ کا بدترین اور تاریک ترین زمانہ ہے۔ شاہ صاحب نے اپنی زندگی میں کئی بادشاہوں کو تخت دہلی پر دیکھا، بہتر سے بہتر اور بد سے بدتر، اور نگ زیب تاشاہ عالم، اس دوران اخلاقی بگاڑ اپنی آخری حد کو پہنچ چکاتھا، وہ امرا کا داد عیش دینا، شاہزادوں کا گل چھرے اڑانا، وہ تن آسانی وآرام طلبی،تعیش کوشی، دولت پرستی، خود غرضی اوربے ایمانی کہ شیطان بھی شرما جائے۔ دوسری طرف سیاسی داؤ پیچ اور مکروفریب، انتشار واضطراب، انار کی اور بدنظمی کی کوئی انتہا نہیں تھی۔ سادات بارہہ کا تسلط اور آخری درجہ کا ظلم وستم، مرہٹوں کازور،جاٹوں کا اثر،سکھوں کی شورش نادرشاہ کا حملہ اور دہلی کا قتل عام، عام سیاستِ ملکی میں روہیلوں کی شرکت اور اقدار میں ان کا عمل دخل، ایرانی امراء کی باغیانہ کوششیں اور حکومت کے خلاف سازشیں، اخیر میں انگریزوں کی للچائی ہوئی نظر یں اور تخت سلطنت پر قبضہ کی تدبیریں، ان سب چیزوں نے شاہ صاحب جیسے اللہ والے بزرگ کو جھنجھوڑ کر رکھ دیا۔ ‘‘
ملک اور عوام کی زبوں حالی نے آپ کو ذہنی وروحانی اضطراب میں مبتلا کردیا۔ اسی حالت میں سنہ1728میں آپ حجاز مقدس تشریف لے گئے۔ آپ نے دو سال وہاں رہ کر حج وعمرہ کے لیے یورپ اور ایشیا سے آنے والے زائرین کے ذریعے ان ملکوں سے متعلق پوری واقفیت حاصل کی۔ترکی کی اسلامی حکومت کو اگرچہ سماجی خرابیوں کا گھن لگ چکاتھا مگر پھر بھی وہ اس زمانہ میں ایشیا کی سب سے بڑی اسلامی حکومت تھی۔ تمام مشرق وسطیٰ پر اس کے اقتدار کا پرچم لہرارہاتھا،بحر عرب میں عدن تک ترکی کا قبضہ تھا، یورپ اور افریقہ کے بھی بہت سے حصے اس کے اختیار میں تھے۔ شاہ صاحب نے اس سب سے بڑی اسلامی حکومت کے اندرونی حالات کا گہری نظر سے مطالعہ کیا۔ نامور مورخ،فقیہ اور محدث حضرت مولانا سید محمد میاںؒ اپنی شہرہ آفاق کتاب ’علماء ہند کا شاندار ‘ماضی میں لکھتے ہیں:
’’اسلامی ممالک کا جائزہ لینے کے بعد آپ کے گہرے غور و خوض اور اعلیٰ تدبر نے فیصلہ کیا کہ جو کچھ سماجی معاشی یا اقتصادی تباہی اس وقت موجود ہے اس کا اصل سبب ملوکیت اور شہنشاہیت ہے۔ اپنے سفر حجاز میں آپ کے ضمیرکی آواز نے یہ فیصلہ بھی سنادیا کہ ان تباہیوں اور بربادیوں کا واحد علاج ’فک کل‘ نظام ہے یعنی ایسا ہمہ گیر اور مکمل انقلاب جو سماج کے معاشی، سیاسی، اقتصادی غرض کہ ہر ایک ڈھانچے کو بدل ڈالے کیونکہ اس وقت کا ہر ایک نظام خواہ اس کا تعلق کسی بھی شعبہ سے ہو، شہنشاہیت کاپر وردہ ہے اور وہ امراض جو شہنشاہیت کے ساتھ لازم ہوتے ہیں ہر شعبہ حیات میں سرایت کرچکے ہیں، پس کوئی اصلاح اس کے بغیر ممکن نہیں کہ ہر نظام کہنہ کو منہدم کرکے اس کی جگہ نظام نو تعمیر کیا جائے۔‘‘
حضرت شاہ ولی اللہ محدث دہلوی رحمۃ اللہ علیہ کی ذات گرامی کو صرف ہندوستان ہی نہیں بلکہ پوری دنیا میں عوامی انقلاب اورقوموں کی آزادی کا اولین رہنما کہا جاسکتاہے۔کیونکہ حضرت نے اس زمانہ میں اسلامی جہاد کی حقیقی روح کے ساتھ انقلابِ نو کا عملی اور فکری نمونہ دنیا کے سامنے پیش کیاجب انقلاب فرانس (1789)کو رونما ہونے میں 50سال باقی تھے جسے تاریخ عالم میں اولین عوامی انقلاب کی حیثیت حاصل ہے۔ شاہ صاحب نے ہندوستان کی سرزمین میں اقتصادیات اور سیاسیات کے وہ اصول مرتب فرمائے جو آج بھی اقوام عالم کے لیے نشانِ راہ ہیں۔ یہ وہ زمانہ تھا جب کارل مارکس اور اینجل کو پیدا ہونے میں پوری ایک صدی باقی تھی۔ 
ہندوستان کو بجا طور پر فخر ہے کہ شاہ صاحب نے اپنی مشہور عالم کتاب حجۃ اللہ البالغہ، اس دور میں تصنیف فرمائی جب اقوام عالم ان تعمیری واصلاحی نظریات سے آگاہ نہیں تھیں۔ بلاشبہ یہ انقلابی نظریات اسلامی اور قرآنی تعلیمات کی روشنی میں اپنے عہد کی اس تاریخ سازشخصیت نے مرتب کیے:
(1) دولت کی اصل بنیاد محنت ہے، مزدور کا شتکار قوت کا سبہ ہیں، باہمی تعاون شہریت کی روح رواں ہے۔ جب تک کوئی شخص ملک اور قوم کے لیے کوئی کام نہ کرے ملک کی دولت میں اس کا کوئی حصہ نہیں۔
(2) جوا، سٹہ اور عیاشی کے اڈے ختم کیے جائیں جن کی موجودگی میں تقسیم دولت کا صحیح نظام قائم نہیں ہوسکتا اوربجائے اس کے کہ قوم اور ملک کی دولت میں اضافہ ہو، وہ دولت بہت سی جیبوں سے نکل ایک طرف سمٹ آتی ہے۔
(3) مزدور اور کاشتکار اور جو لوگ ملک اور قوم کے لیے دماغی کام کریں دولت کے اصل مستحق ہیں۔ ان کی ترقی اور خوشحالی ملک اور قوم کی خوشحالی ہے۔ جو نظام ان قوتوں کو دبائے وہ ملک کے لیے خطرہ ہے،اس کو ختم کیا جانا چاہئے۔
(4) جو سماج محنت کی صحیح قیمت ادا نہ کرے، مزدروں اور کسانوں پر بھاری ٹیکس لگائے قوم کا دشمن ہے۔ اس کو ختم ہونا چاہئے۔
(5) ضرورت مند مزدور کی رضا مندی قابل اعتبار نہیں، جب تک کہ اس کی محنت کی صحیح قیمت ادا نہ کی جائے جو امداد باہمی کے اصول پر لازم ہوتی ہے۔
(6) جو پیدا وار یا آمدنی تعاون باہمی کے اصول پر نہ ہو وہ خلاف قانون ہے۔ 
(7) کام کے اوقات مقرر کیے جائیں، مزدروں کو اتنا وقت ضرور ملنا چاہئے کہ وہ اپنی روحانی واخلاقی اصلاح کرسکیں اور ان کے اندر مستقبل کے متعلق غور وفکر کی صلاحیت پیدا ہوسکے۔
(8) تعاون باہمی کا سب سے بڑا ذریعہ تجارت ہے، لہٰذااس کو تعاون کے اصول پر ہی جاری رہنا چاہئے۔ جس طرح تاجروں کے لیے جائز نہیں کہ وہ بلیک مارکیٹ یا غلط قسم کی مسابقت سے روح تعاون کو نقصان پہنچائیں، ایسے ہی حکومت کے لیے یہ درست نہیں کہ بھاری ٹیکس لگا کر تجارت کے فروغ وترقی میں رکاوٹ پیدا کرے یا رخنہ ڈالے۔
(9) وہ کاروبار جو دولت کی گردش کو کسی خاص طبقہ میں منحصر کردے ملک کے لیے تباہ کن ہے۔
(10) وہ شاہانہ نظام زندگی جس میں چند اشخاص یا چند خاندانوں کی عیش وعشرت کے سبب سے دولت کی صحیح تقسیم میں خلل واقع ہو، اس کا مستحق ہے کہ اس کو جلد از جلد ختم کرکے عوام کی مصیبت ختم کی جائے اور ان کی مساویانہ نظام زندگی کا موقع دیا جائے۔
(11) زمین کا مالک حقیقی اللہ (اور ظاہری نظام کے لحاظ سے اسٹیٹ)ہے۔ باشندگان ملک کی حیثیت وہ ہے جو کسی مسافر خانہ میں ٹھہرنے والوں کی۔ ملکیت کا مطلب ہے کہ اس کے حق انتفاع میں دوسرے کی دخل اندازی قانوناً ممنوع ہو۔
(12) تمام انسان برابر ہیں، کسی کو یہ حق نہیں کہ وہ اپنے آپ کو مالک ملک الناس،مالکِ قوم یا انسانوں کی گرونوں کا مالک تصور کرے، نہ کسی کے لیے جائز ہے کہ وہ کسی صاحب اقتدار کے لیے ایسے الفاظ استعمال کرے۔
(13) اسٹیٹ کے سربراہ کی وہ حیثیت ہے جو کسی وقف کے متولی کی ہے، وقت کامتولی اگر ضرورت مند ہو تو اتنا وظیفہ لے سکتاہے ملک کے عام باشندے کی طرح زندگی گزار سکے۔
(14) روٹی کپڑا اور مکان اور ایسی استطاعت کہ نکاح کرسکے اور بچوں کی تعلیم وتربیت کرسکے، بلالحاظ مذہب ونسل ہر انسان کا پیدا ئشی حق ہے۔
(15) اسی طرح مذہب، رنگ ونسل کے کسی تفاوت کے بغیر باشندگان ملک کے معاملات میں یکسانیت کے ساتھ عدل وانصاف، ان کے جان ومال کا تحفظ، ان کی عزت وناموس کی حفاظت، حق ملکیت میں آزادی، حقوق شہریت میں یکسانیت ہر باشندۂ ملک کا بنیادی حق ہے۔
(16) اپنی زبان وتہذیب کو زندہ رکھنا ہر ایک فرقہ کا بنیادی حق ہے۔ بین الاقوامی نظام کے بارے میں عظیم انقلابی مفکر حضرت شاہ ولی اللہ محدث دہلویؒ نے رہنما اصول وضع فرمائے ہیں ’’خود مختار علاقے بنائے جائیں، یہ خود مختار اکائیاں اپنے معاملات میں آزاد ہوں گی۔ ہر یونٹ میں اتنی طاقت ضرور ہونی چاہئے کہ اپنے جیسے یونٹ کے اقدام کا مقابلہ کرسکے۔ یہ تمام اکائیاں ایک ایسے بین الاقوامی نظام (بلاک) میں منسلک ہوں جو فوجی طاقت کے لحاظ سے اقتدار اعلیٰ کا مالک ہو، اس کو یہ حق نہیں ہوگا کہ کسی مخصوص مذہب یا مخصوص تہذیب کو کسی دیگر یونٹ پر لادسکے البتہ اس کا یہ فرض ضرور ہوگا کہ کسی قوم کے یونٹ کو یہ موقع نہ دے کہ کسی دوسری قوم یا تہذیب پر حملہ کرسکے۔‘‘
شاہ صاحب نے آج سے 3صدی قبل ہندوستانی سیکولرزم یعنی احترام کل مذاہب کا انقلابی نظریہ پیش کیاتھا:
’’دین اور سچائی کی بنیاد ایک ہے، اس کے پیش کرنے والے ایک سلسلہ کی کڑیاں ہیں، والیان صداقت ہر ملک اور قوم میں گزرے ہیں، ان سب کا احترام ضروری ہے۔ سچائی اور دین کے بنیادی اصول تمام فرقوں میں تقریباً تسلیم شدہ ہیں، مثلاً اپنے پروردگار کی عبادت، اس کے لیے نذر ونیاز، صدقہ وخیرات اور روزہ وغیرہ، یہ سب کام اچھے ہیں، البتہ عملی صورتوں میں اختلاف ہے۔ ساری مہذب دنیا کے سماجی اصول اور ان کا منشا ومقصد ایک ہے مثلاً ہر ایک مذہب اور فرقہ جنسی انارکی کوناپسند اور اخلاقی جرم قرار دیتاہے۔ جسمانی تعلقات کے لیے مرد اور عورت میں ایک معاہدہ ہر فرقہ میں ضروری ہے البتہ اس کی صورتیں مختلف ہیں۔ہر فرقہ اپنے مرُدوں کودنیا کی نظروں سے غائب کردینا ضروری سمجھتاہے، اختلاف اس میں ہے کہ زمین میں دفن کرکے نظروں سے اوجھل کردیا جائے یا جلا کر۔‘‘(حجتہ اللہ البالغہ)
شاہ ؒ صاحب جہاد کو ایک مقدس فریضہ قرار دیتے ہیں، آپ نے جہاد کے معنی یہ بتا ئے ہیں کہ مقدس اصول کے لیے انسان اپنے اندر جذبۂ فدائیت پیدا کرے یہاں تک کہ وہ اپنی ہستی مقدس اصول کے لیے فنا کردے۔
اپنے دور کے اس عہد ساز مدبر اعظم نے اچھی طرح سمجھ لیاتھا کہ شہنشاہیت کا زمانہ ختم ہوااس وقت کے ہندوستان کی صورت حال ان کے سامنے تھی۔ انگریزوں کی چیرہ دستیاں بڑھ رہی تھیں، وطن کی آزادی خطرے میں تھی، آپ نے وقت کی اس نازک صورتِ حال میں اپنی اس ہمہ گیر تحریک کا آغاز کیا جو درحقیقت ہندوستان کی تحریک آزادی کی تاریخ کا پہلا قدم تھا۔ان کے پیش نظر پوراہندوستان تھا۔ چونکہ مرکزی ہندوستان کی قیادت اس وقت مسلمانوں کے ہاتھوں میں تھی، اس لیے یہ قدرتی امر ہے کہ شاہ صاحب نے مسلمانوں سے خطاب کیا۔ لیکن شاہ صاحب کی دعوت کے اصول عام انسانیت کے اصول تھے۔ ان کا زور مذہب کی رسوم پر نہیں بلکہ مذہب کی روح پر تھا،ان کی ظاہری شکل پر نہیں بلکہ قانون کی جان یعنی عدل وانصاف پر تھا۔ مرہٹوں جاٹوں سکھوں اور اس عہد کی چھوٹی چھوٹی تحریکیں اپنی اپنی جگہ پر ٹھیک ہوں گی لیکن ان میں سے کسی تحریک میں اتنی وسعت اور ہمہ گیر ی نہیں تھی کہ وہ ہندوستان کی مرکزیت اور وحدت کو بحال کرسکنے کی تدبیر سوچتی۔ شاہ صاحب اپنے مجوزہ نظام میں اکبر، جہانگیر، شاہجہاں اور اورنگ زیب کے زمانے کی مرکزیت اور سلطنت ہند کے اقتدار اعلیٰ کو بحال دیکھنا چاہتے تھے لیکن اس طرح سے کہ مطلق العنان بادشاہوں کے بجائے انصاف کی حکومت ہو۔‘‘ (شاہ ولی اللہ اور ان کی سیاسی تحریک از مولانا محمد سرور)
حضرت شاہ ولی اللہ دہلویؒ فوجی انقلاب کے حامی تھے لیکن وہ فوجی انقلاب جو جہاد کے اصول پر ہو جس کا نصب العین سب سے بہتر وبرتر ہو اور جس کا ہر مجاہد ذاتی اغراض سے یہاں تک بلند ہو کہ خود اپنی شخصیت کو فنا کرچکاہو، اس کا ہر اقدام صرف خدا کے لیے ہو جس کی حدود یہ ہیں کہ ساری مخلوق خدا کا کنبہ ہے، سب سے بہتر وہ ہے جو خدا کے کنبہ کی بھلائی اور بہتری کے لیے قربانی دے،اس لیے نہیں کہ خلق اللہ اس کا احسان مانے یا اس کی تاریخ روشن ہو، مجاہد نصب العین کے لیے قربان ہوجانے کو ابدی زندگی تصورکرے۔ ایسا انقلاب پیشہ ور سپاہیوں کے ذریعہ نہیں ہوسکتا بلکہ ان پرخلوص رضا کاروں کے ذریعہ ہوسکتاہے جنہیں اس کی تربیت خاص طور پر دی گئی ہو جو نصب العین کو سمجھیں اور اصلاحی نظریات پر پہلے اپنے آپ کو ہموار کریں اس کے بعد ان کو کامیاب بنانے کے لیے قربان ہوجانا اپنی زندگی کا مقصد بنالیں۔ حضرت شاہ ولی اللہ ؒ نے سب سے پہلے ہی خدمت انجام دی، آپ نے اپنی ہمہ گیر تحریک کا ہیڈکوارٹر دہلی میں قائم کیا، دہلی اس زمانہ میں بھی ایسا شہر تھا جہاں بہت سی قوموں کے لوگ رہتے تھے۔ظاہر ہے ایسے شہر سے اٹھنے والی کسی بھی تحریک کا اثر دور دور تک پھیل سکتاتھا۔ تحریک کے اس اساسی مرکز کی سربراہی شاہ صاحبؒ نے اپنے لائق فرزند اور عظیم مجاہد آزادی حضرت شاہ عبد العزیز محدث دہلوی ؒ کو سونپی۔
تحریک کا دوسرااہم مرکز رائے بریلی میں واقع تکیہ شاہ علم اللہ میں قائم فرمایا، یہ مقدس مقام پہلے سے ہی اسلام کی تعلیم وترویج کا مرکز تھا۔ یہی وہ ولی اللّٰہی مرکز تحریک ہے جہاں سے سید احمد شہیدؒ نے جہاد آزادی اور جذب�ۂ حریت کا تاریخ ساز پرچم بلند کیاتھا۔ نجیب آباد، لکھنؤ اور ٹھٹھہ (سندھ)وغیرہ مقامات پر بھی شاہ صاحب نے اپنی انقلابی تحریک کے مراکز قائم کیے جہاں سے ذہنی، فکری، اور عملی تربیت یافتہ مجاہدین کی بڑی تعداد نے پورے ملک میں ایک پاکیزہ اورصحت مند انقلاب کی روح پھونک دی۔ ولی اللّٰہی تحریک ایک مکمل پیغام انقلاب تھا جو صرف بادشاہ اور بادشاہ پرستوں کے لیے ہی پیغام فنا نہیں تھا بلکہ ان طاقتو ں کے لیے بھی موت کا پیغام تھا جو سلطنت مغلیہ کی جانشین بننا چاہتی تھیں یا پیشہ ور سپاہیوں کی مدد سے ملک کے چپے چپے پر جاگیر دارانہ نظام کے جھنڈے گاڑے ہوئے تھیں۔ بدعنوان بادشاہ، نوا بین،امر اء اور جاگیرداروں کے علاوہ شاہ صاحبؒ کی تحریک دنیا پسند علماء، مشائخ،شعراء ودانشوروں کے خلاف بھی ایک مؤثر آواز تھی۔ چونکہ عوام کا بڑا طبقہ ایسے ہی عناصر کے زیر اثر تھا اس لے آپ کی اصلاحی وانقلابی تحریک کی قدم قدم پر مخالفت ہوئی لیکن آپ نے مخالفت کی شدید آندھیوں میں ہمہ گیر انقلاب کا چراغ روشن کیا۔ دنیا کے معروف انقلابی مارکس اینجلس اور لینن ایسے دور میں ہوئے جب پریس کی طاقت نے بہت کم وقت میں ان کا پیغام کرۂ ارض کے تمام انسانوں تک پہنچادیا۔ لیکن جس وقت شاہ صاحبؒ نہ صرف ہندوستان بلکہ پورے عالم انسانیت کوملوکیت سے آزادی اور حریتِ انسانی کا پیغام دینا چاہ رہے تھے،انہیں ایسی سہولیات میسر نہ تھیں۔ اس وقت ترویج واشاعت کا ذریعہ تقاریر،تربیتی مراکز اور قلمی تحریریں ہی تھیں۔دہلی پر مرہٹوں کی یلغار، نادرشاہ کا خوفناک قتل عام، پانی پت کے میدان میں احمد شاہ ابدالی کی مرہٹوں کے خلاف فیصلہ کن جنگ عظیم جیسے طوفانوں سے گزرنے والے شاہ صاحبؒ نے اپنے انقلابی نظریات کو کبھی ترجمہ قرآن کریم کے رنگ میں پیش کیا، کبھی تصوف روحانیت اور اسلامی فلسفہ کو وسیلۂ اظہار بنایا تو کبھی پندوموعظت کا پیرا یہ اختیار کیا یا اسلامی تاریخ اور سیرتِ صحابہ کرام کا سہارا لیا۔ لیکن اس احتیاط کے باوجود آپ اور آپ کے جانشین قاتلانہ حملوں اور وحشیانہ سزاؤں سے نہ بچ سکے۔ شاہ صاحب نے قرآن کریم کا اس وقت مروج زبان فارسی میں ترجمہ کیا تو وہ دراصل آپ کے اخلاقی اور مذہبی انقلاب کا پہلا قدم تھا کیونکہ شاہ صاحبؒ کے دور میں قرآن کریم کے ترجمہ وتفسیر کے ذریعے قرآنی علوم کی ترویج کو بے حد خطرناک سمجھا جاتاتھا۔ جب شاہ صاحبؒ نے قرآن کریم کا فارسی ترجمہ کیا تو دہلی کی مسجد فتح پوری پر علمائے سو ء کی طرف سے ان پرقاتلانہ حملہ کرایاگیا اور یہ پروپیگنڈہ کیاگیا کہ جب دفتروں کے محرر قرآن کو جاننے لگیں گے تو علماء کی کیا ضرورت باقی رہے گی اور ان کا اقتدار کیسے قائم رہے گا؟(تحریک شیخ الہند)
شاہ ولی اللہؒ کی انقلابی تحریک میں ہندو مسلم کی تفریق نہیں تھی اور بقول حضرت مولانا عبید اللہ سندھی ؒ :
’’ہندو نوجوانوں میں بھگوت گیتا کی تعلیمات سے ہی اسپرٹ پیدا کی جاسکتی تھی مگر اس زمانہ کی سیاست کے لحاظ سے انقلاب کا مختصر راستہ یہی تھا کہ مسلم نوجوانوں میں جو شاہ صاحب ؒ سے زیادہ قریب تھے،صحیح احساس اور قوت عمل پیدا کردی جائے۔ایک خاص بات یہ بھی تھی کہ پورے شمالی ہند اور جنوبی ہند کے بڑے حصے میں برسراقتدار مسلمان فن سپہ گری میں ماہر اور فوجی صلاحیت وقوت کے مالک تھے اور وسطی ہند کی راجپوت ریاستیں مسلمانوں کا اقتدار اعلیٰ تسلیم کیے ہوئے تھیں۔ ان کے راجہ سلطنت مغلیہ کے منصب دار اور دربار کے ایرانی تورانی گر وپوں میں شامل تھے چنانچہ اس نازک دور میں کسی ہندو ریاست نے سلطنت مغلیہ کے ٹمٹماتے چراغ کو گل کرنے کی کوشش نہیں کی، اس دور کی مرہٹی طاقتوں کے بارے میں بھی یہ فیصلہ کرنا مشکل ہے کہ وہ مغل بادشاہ کو ختم کرنے کے درپے تھیں یا دربار میں اپنا اقتدار تسلیم کرانا چاہتی تھیں۔ پھر 1857ء میں تو مرہٹوں کی باقی ماندہ طاقت نے یہ تسلیم کرہی لیاتھا کہ انقلاب کا راستہ صرف یہی ہے کہ سلطنت مغلیہ کے کسی وارث کو حکمراں تسلیم کیا جائے۔لہٰذا اخلاق اور مذہب دونوں کا تقاضہ تھا کہ انقلاب کے لیے سب سے پہلے اس طبقے کی تربیت کی جائے جس پر سارا ملک اعتمادکیے ہوئے تھا، چونکہ ایشیا میں زیادہ تر حصہ پر مسلمان برسراقتدار تھے اس لیے مسلم نوجوانوں کی اصلاح سے پورے ایشیا کی اصلاح ہوسکتی تھی اوریہ قوت یوروپ کے امنڈتے ہوئے سیلاب کو روک سکتی تھی۔ یہی وجہ ہے کہ تحریک ولی اللّٰہی کے سائے میں جو جماعت آزادی کی جنگ میں سب سے پہلے سامنے آئی اس میں صرف مسلمان مجاہدین آزادی کے نام نمایاں ہوئے۔‘‘ (علماء ہند کا شاندار ماضی)
سنہ 1762میں حضرت شاہ ولی اللہ محدث دہلویؒ کی وفات ہوگئی اپنے تاریخی وصیت نامے میں شاہ صاحبؒ نے دردمندانہ لفظوں میں فرمایاتھا۔ ’’ہم لوگ اجنبی مسافر لوگ ہیں، ہمارے باپ دادے اس ملک میں بحالت مسافرت یہاں داخل ہوئے اور پھر وہی حالت واپس ہوگئی۔‘‘
شاہ صاحبؒ دیکھ رہے تھے کہ اگر یہی لیل ونہار ہیں تو اس ملک میں اب دین اور اہل دین کا خدا ہی حافظ ہے، جو کچھ ہونے والا تھا ان کی دوربین نظر میں روشن تھا، لیکن اس وقت تک دہلی پر انگریزوں کا غلبہ نہیں ہواتھااور حالات اس قدر سنگین نہیں ہوئے تھے کہ شاہ صاحب ؒ اپنے پروگرام، عزائم اور نظریہ جہاد کے مطابق انگریزوں کے خلاف عملی جدوجہد کا آغاز کرتے اور برطانوی در اندازوں کے خلاف صریحی جہاد کا فتویٰ صادر فرماتے۔ یہ شرف ان کے صاحبزادے اور وارث شاہ عبدالعزیز ؒ کے لیے مقدرتھا۔ مولانا سعید احمد اکبر آبادی رقم طراز ہیں:
’’اگرچہ ہماری نظر سے کہیں نہیں گزرا کہ شاہ صاحب ؒ نے ملک کو دارالحرب کہا ہو، لیکن وہ ملک کا جو نقشہ کھینچتے ہیں اور جو حالات بیان کرتے ہیں وہ ہر گز کسی دارالسلام کے نہیں ہوسکتے اور اس بنا پر بے تکلف یہ کہا جاسکتاہے کہ ان کے نیم شعوری ذہن میں ہندوستان کے دارالحرب میں منتقل ہوجانے کاتصور موجود تھا۔‘‘
اس انقلابی نظریہ کو حضرت شاہ عبدالعزیز ؒ نے عملی طور پر پیش کیا، لیکن جیسا کہ جناب کے ایم اشرف نے لکھا ہے کہ: ’’شاہ ولی اللہ ؒ اٹھارہویں صدی کے احیاء اسلام کے ممتاز محرکوں میں ہیں جنہوں نے برطانوی حکومت کے خلاف پے درپے شورشوں کی قیادت کی۔ اس حقیقت سے انکار نہیں کیا جاسکتاکہ شاہ ولی اللہ ؒ کی تحریک ہندوستان کی تحریک آزادی کی تاریخ میں ہی نہیں بلکہ عالمی تحریکات آزادی میں سنگ میل کی حیثیت رکھتی ہے۔ اسی سے عام بیداری پیدا ہوئی، یہیں سے روح ملی یہیں سے غذا فراہم ہوئی، اسی ولی اللّٰہی تحریک نے جہد آزادی کی زمین ہموار کی۔‘‘

  

https://en.wikipedia.org/wiki/Shah_Waliullah_Dehlawi
शाह वलीउल्लाह देहलवी
https://www.rekhta.org/ebooks/hazrat-shah-waliullah-dehlvi-shakhsiyat-wa-hikmat-ka-ek-ta-aruf-mohammad-yaseen-mazhar-siddiqi-ebooks
शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस देहलवी : ई-पुस्तकें
https://www.rekhta.org/ebooks?author=shah-waliullah-mohaddis-delhvi&lang=hi

Tuesday, March 6, 2018

sher-mesoor-tipu-sultan-shaheed-urdu

شیر کی ایک دن کی زندگی گیدڑ کی ہزار سالہ زندگی سے بہتر ہے
شیرِمیسور ٹیپوسلطان شہیدؒ 

ہندوستانی تاریخ آزادی کا عظیم ہیرو حید رعلی ریاست میسور کے وزیر نند راج کا ملازم تھا، لیکن اپنی غیر معمولی شجاعت، بلند حوصلگی اور خداداد ذہانت سے ترقی کے مدارج طے کرتاہوا ایک دن ریاست کا حکمراں بن گیا۔ حیدر علی تعلیم یافتہ نہیں تھا لیکن وہ ایک بہترین سپہ سالار اور غیر معمولی تنظیمی صلاحیتوں کا مالک تھا۔ حیدر علی 1761میں میسور پر قابض ہوا۔ ریاست کے راجاؤں کی نااہلی اور عیش پرستی نے ریاست کو تباہ کرکے رکھ دیاتھا۔ حیدر علی کو اقتدار سنبھالتے ہی چاروں طرف سے دشمنوں کی یلغار کا سامنا کرنا پرا۔ ایک طرف ہندوستان میں بہت بڑی طاقت بن چکے سازشی انگریز وں سے مقابلہ تھا تو دوسری جانب مرہٹے اور نظام دکن سے لڑنا پڑرہاتھا۔ حیدر علی نے بڑی حوش اسلوبی کے ساتھ ریاست میں اپنے اقتدار کو مضبوط کیا۔ اس کے دور حکومت میں ریاست کے عوام خوشحال ہوئے، وہ ایک سچا سیکولر حکمراں ثابت ہوا، اس کی سلطنت میں ہندوؤں کوبھی خوب ترقی کرنے کا موقع ملا۔ اس کے وزراء اور اعلیٰ عہدوں پر لائق ہندو فائز تھے۔ ریاست میں ہر طرف قانون اور انصاف کی بالادستی قائم تھی۔ حیدر علی انگریزوں کی نیت کو پہچان چکاتھااور انہیں ہندوستان کی آزادی کے لیے زبردست خطرہ سمجھتاتھا۔ انگریز حیدر علی کی بڑھتی ہوئی طاقت سے خائف تھے اور اسے ختم کرنے کے در پے تھے لیکن حید رعلی بھی انگریز لٹیروں سے سرزمینِ وطن کو پاک کرنے کا عزم کرچکاتھا۔
1767میں انگریزوں کے ساتھ انگل (ریاست میسور)میں جو خوفناک جنگ شروع ہوئی وہ 2سال تک جاری رہی۔ اس جنگ میں مرہٹے اور نظام حیدر علی کے ساتھ تھے۔ 1769میں انگریزوں نے اس سے صلح کرلینا ہی بہتر سمجھا، دونوں جانب سے مقبوضہ علاقے ایک دوسرے کو واپس کردیے گئے۔ لیکن انگریزوں نے اس صلح نامہ کا احترام نہیں کیا۔1780میں انگریزوں نے حیدر علی کے علاقے ماہی پر حملہ کرکے قبضہ کرلیا۔ حیدر علی نے پوری قوت سے انگریزوں پر فوج کشی کی، لیکن ایسٹ انڈیا کمپنی کے چالاک ترین سربراہ وارن ہسٹنگز نے مرہٹوں اورنظام کو ورغلا کر ملک سے دغا بازی پر راضی کرلیا۔ حیدر علی اس حالت میں بھی بڑی بہادری سے وطن دشمنوں کا مقابلہ کررہاتھا۔ انگریز اپنی تمام تر سازشوں اور اپنی بے پناہ فوجی طاقت کے باوجود حیدر علی کو شکست دینے میں ناکام رہے، اس دوران ایک جنگ میں حیدر علی بری طرح زخمی ہوا اور چندر روز بعد انتقال کرگیا۔
حیدر علی ہر لحاظ سے ایک لائق بہادر اور انصاف پسند حکمراں تھا، ہندوستانی تاریخ میں جس کا ثانی دکھائی نہیں دیتا۔1782میں حیدر علی کے انتقال سے انگریزوں کے اکھڑتے ہوئے قدم جمنے لگے، انہیں ہر محاذ پر نیچا دکھانے والا بہادر دنیا سے جاچکاتھا۔ حیدر علی کے انتقال کے بعد اس کے لائق فرزند فتح علی ٹیپو سلطان نے حکومت کی ذمہ داری سنبھالی۔ 
ٹیپو سلطان کی ولادت 1750میں ہوئی، تخت نشینی کے وقت اس کی عمر 32سال کی تھی۔ ٹیپو سلطان دینی ودنیوی علوم سے آراستہ نہایت نیک کردار، حق گو اور بلند حوصلہ نوجوان تھا۔ وہ عربی فارسی، اردو اور کنٹر زبانوں کے علاوہ انگریزی اور فرنچ میں بھی خاصی دستگاہ رکھتاتھا۔ اس کے ساتھ ہی ٹیپو بہترین فوجی تربیت سے آراستہ تھا۔ دراصل ہندوستانی تاریخ کا یہ نامور سپوت ایک اعلیٰ تربیت یافتہ ذہن دماغ کا مالک تھا، وہ بہت سے اہم علوم وفنون سے واقف تھا اور ہر موضوع پر ماہرانہ گفتگو کرسکتاتھا۔ ٹیپو اگرچہ اردو اور کنٹر زبانوں کا ماہر تھا لیکن عام طور پر فارسی میں ہی بات چیت کرتاتھا۔ ٹیپو کو سائنس، طب، انجینئرنگ،علم نجوم، موسیقی اور خطاطی سے بے حد لگاؤ تھا۔ اس کے عہد حکومت میں صنعت، تجارت، زراعت اور دیگر شعبہ ہائے حیات میں نمایاں انقلابی ترقیاں ہوئیں۔
ٹیپو سلطان نے اپنے والد کی قیادت میں جس بہادری اور دانشمندی کا ثبوت انگریزوں کے ساتھ ہونے والی جنگوں میں دیاتھااس سے انگریز اس سے بری طرح خوفزدہ اور فکر مند تھے۔ یہ نوجوان حکمراں انگریزوں کی راہ میں ایک مضبوط چٹان کی طرح حائل تھا۔ درحقیقت سلطان حب الوطنی، قومی غیرت اور روحِ جہاد کا پیکر تھا۔ انگریز قوم کی سامراجی سازشوں سے نفرت اسے اپنے والد سے وراثت میں ملی تھی۔ ٹیپو سلطان نے تخت نشینی کے وقت اس طرح اپنے خیالات کا اظہار کیاتھا:’’ میں خدا کا ایک حقیر بندہ ہوں، میری زندگی کا بھی کوئی بھروسہ نہیں لیکن میرا فرض ہے کہ جب تک زندہ رہوں،وطن کی آزادی کے لیے جہاد کرتا رہوں، ہزاروں انسان وطن کے لیے موت کے گھاٹ اترسکتے ہیں لیکن وطن سے محبت کے جذبات نہیں مٹ سکتے۔‘‘
انگریز قوم نے اپنی سامراجیت کی تاریخ میں ٹیپو سلطان سے زیادہ اور کسی کو اتنے خوف دہشت اور نفرت کا مرکز نہیں بنایا۔ انگریزاس نوجوان سربراہ ریاست کی لیاقت اور شجاعت کو سمجھ چکے تھے، انہیں یقین ہوگیاتھا کہ ٹیپو سلطان کی موجودگی میں ہندوستان پر پوری طرح تسلط جمالینا ان کے لیے ناممکن ہے۔ انگریز ٹیپو سے کس قدر خوف زدہ تھے،اس کا اندازہ گورنر جنرل لارڈ کارنوالس کے اس خط سے بہ آسانی ہوجاتاہے جو اس نے حیدر علی کی وفات اور ٹیپو سلطان کے اقتدار سنبھالنے کے بعد مدراس کے گورنر کو تحریر کیاتھا:
’’اس ملک (ہندوستان) میں اپنی عزت اور ساکھ قائم رکھنے کے لیے لازمی ہے کہ ہم ٹیپو سلطان سے فیصلہ کن جنگ کریں۔ اس موقع سے فائدہ اٹھاتے ہوئے ہمیں نہ صرف ٹیپو سلطان کے خلاف لڑنا چاہیے بلکہ اس طاقت کو ہمیشہ کے لیے مٹا دینا چاہیے۔ موجودہ وقت سے بہتر کوئی وقت نہیں ہوسکتا ملک کی دوسری طاقتیں ہمارے ساتھ ہیں(نظام اور مرہٹے وغیرہ)اگر ٹیپو کو آزاد چھوڑ دیا جائے اور فرانس اس حالت میں آجائے کہ ٹیپو کی مدد کرسکے تو اس صورت میں ہمیں ہمیشہ کے لیے ہندوستان کو خیر باد کہنا ہوگا۔‘‘
ڈیوک آف ولزلی جوسنہ 1796میں ہندوستان آیاتھا، اپنی یادداشت میں لکھتا ہے:
’’جب سے میں آیا ہوں، دیکھ رہاہوں کہ ٹیپو انگریزوں کے لیے مستقل ہوّا بنا ہواہے انگریز جب کسی کو خوفزدہ کرنا چاہتے ہیں تو کہتے ہیں ’’ٹیپو سلطان کی فوج چل پڑی ہے۔‘‘
اس دور میں ٹیپو سلطان کی بہادری، دور اندیشی اور حکمت عملی سے انگریز ہندوستان میں ہی نہیں، انگلینڈ میں بھی اس کے نام سے ہراساں تھے۔ انگریزوں کی عورتیں اپنے بچوں کو ٹیپو کا نام لے کر ڈرایا کرتی تھیں۔ سنہ 1792میں انگریزوں نے مرہٹوں اور نظام کو ملا کر ٹیپو پر زبردست حملہ کیا او راس کی سلطنت کے تقریباً آدھے علاقے پرقبضہ کرکے آپس میں بانٹ لیا۔ یہ شکست سلطان کے لیے زبردست اذیت اور ذلت کا باعث تھی جب اسے ہر طرف سے دشمنوں نے گھیر کر اس پر تین کروڑ تاوان جنگ لگایا جس میں سے ایک کروڑ فی الفور وصول کرلیاگیا اور باقی رقم کی ادائیگی کے لیے دوسال کی میعاد مقرر کی گئی۔ اس کے ساتھ ہی ضمانت کے طو رپر سلطان کے دوکمسن شہزادوں کو انگریزوں کے پاس یرغمال رکھنے کی شرمناک شرط رکھی گئی۔ یہ ذلت آمیز معاہدہ 23؍فروری 1792کو لکھاگیا۔کمپنی کے گورنر جنرل لارڈ کار نوالس کا خیال تھا کہ ایسی صورت میں جب کہ ٹیپو کی بچی کھچی ریاست کو بری طرح نقصان پہنچاہے وہ مقررہ وقت میں یہ رقم نہیں ادا کرسکے گا، اس طرح آسانی سے وہ اس کے علاقہ پر قابض ہوجائے گا لیکن مغربی مورخین بھی یہ تسلیم کرتے ہیں کہ اپنی اس ناکامی سے شیر دل سلطان مایوس نہیں ہوااس نے پوری ہمت اور حوصلے کے ساتھ نہ صرف اپنی ریاست کے حالت سدھار ی بلکہ مقررہ وقت پر زر تاوان بھی ادا کرکے اپنے بچوں کو واپس لے لیا۔ اس نے زراعت، کاروبار، صنعت اور دوسرے شعبوں کی ترقی کے لیے اس طرح کے عملی اقدامات کیے کہ سلطنت کی حالت سدھر گئی۔
دشمن طاقتوں سے جو امن کا معاہدہ ہوچکاتھا ٹیپو سلطان نے اس کا پوری طرح احترام کیا، لیکن انگریز دیکھ رہے تھے کہ ٹیپو سلطان تیزی سے اپنی حالت سدھارتا جارہاہے۔ لارڈویلز لی نے اس زمانے میں جو خطوط لکھے تھے ان میں سلطان کی طرف سے زبردست خطرے کا احساس ظاہر کیاہے۔
نظام اور مرہٹہ سربراہ پیشواکو اپنی سازش کے جال میں جکڑنے کے بعد انگریزوں نے ٹیپو سلطان کو کچل ڈالنے کی تیاری شروع کردی۔ سلطان پر حملہ کرنے کے لیے اس پر یہ جھوٹا الزام عائد کیاگیا کہ وہ فرانسسیوں سے ساز باز کررہا ہے اور ان سے مل کر انگریزوں پر حملہ کرنے والا ہے۔الزام میں کہاگیا کہ ماریشش میں فرانسیسوں نے ایک اعلان شائع کیا ہے کہ جس کے مطابق ٹیپو سلطان نے وہاں اپنی سفارت بھیج کر فرانسیسوں کی مدد حاصل کرنے کی کوشش کی ہے۔ انگریزوں نے اس الزام کے بارے میں سلطان سے بات چیت کرنے کے بجائے اس پر فیصلہ کن حملے کی تیاری شروع کردی۔ ٹیپو سلطان نے کئی بار نظام اور مرہٹوں کی غیرت کو جگانے کی کوشش کی یہاں تک کہ نظام کے ساتھ رشتہ داری قائم کرنے تک کی پیشکش کی لیکن ان کے ضمیر سوچکے تھے انہوں نے انگریز کی غلامی کا طوق معاہدوں کی صورت میں پہلے ہی پہن لیاتھا۔ سلطان نے دہلی کے بادشاہ شاہ عالم ثانی کو بھی ایک خط ارسال کیا تھاجس میں وطن کی آزادی اور دینِ اسلام کی سربلندی کے لیے اس کی جنگ میں تعاون کی اپیل کی گئی تھی، لیکن شاہ عالم تو ایسٹ انڈیا کمپنی کے ہاتھوں بک چکا تھا،وہ کیا مدد کرسکتاتھا۔ تاریخ شاہد ہے کہ سلطان نے انگریزوں کی لعنت سے اس ملک کو ہمیشہ کے لیے آزاد کرانے کے لیے افغانستان، ترکی اور بلاد عربیہ کے بشمول کئی اسلامی ممالک سے مدد کی اپیل کی لیکن کہیں سے کوئی مثبت جواب نہیں ملا اور وطن پر مرمٹنے کی آرزو رکھنے والا یہ مرد مجاہد تنہا دشمنانِ وطن کا پوری پامردی سے مقابلہ کرتارہا۔
لارڈ ویلز لی ایک طرف تو ٹیپو پر زبردست حملے کی تیاریاں کررہا تھا دوسری طرف اسے دھوکے میں رکھنے کے لیے دوستی کا ہاتھ بھی بڑھارہاتھا۔ایک مقبوضہ علاقہ بائی نادسلطان کو لوٹا کر اسے یقین دلادیا کہ انگریز امن معاہدے کے پابند ہیں۔ اسی دوران شمالی مصرمیں جنرل نکلسن کی قیادت میں برطانوی افواج نے فرانس کا بحری بیڑا پوری طرح برباد کردیا، اس کے بعد فرانسیسیوں کی جانب سے کسی طرح کی مدد ٹیپو سلطان کو ملنے کا سوال نہ تھا۔ٹیپو کو مزید دھوکے میں رکھنے کے لیے اس پر دباؤ ڈالاگیا کہ ایک انگریز افسر میجر ڈگلس سلطان کے دربار میں بھیجا جائے گا تاکہ جن علاقوں کی کمپنی کو ضرورت ہے وہ اس سے مانگ لیے جائیں، یہ ایک طر ح سے سلطان کے ساتھ چھیڑ خانی کی شروعات تھی۔ معاہدہ امن جو ٹیپو سلطان نے انگریزوں، مرہٹوں اور نظام کے ساتھ کیاتھا اس پر وہ پوری طرح کار بند رہا، اس نے کئی بار انگریزوں کو اپنی جانب سے کوئی ایسی کارروائی نہ کرنے کا یقین بھی دلایا جس سے معاہدے کی خلاف ورزی ہوتی ہو،لیکن انگریزتویہ طے کرچکے تھے کہ اپنے لیے اس سب سے بڑے خطرے کو مٹا کر ہی دم لیں گے۔ برطانوی افواج کلکتہ سے چل کر مدراس میں جمع ہوگئیں خودلارڈ ویلزلی اس جنگ میں شامل ہونے کے لیے کلکتہ سے مدراس پہنچ گیا۔9؍جنوری 1799کو ٹیپو سلطان کو ایک گستاخانہ پیغام بھیجا گیا کہ وہ اپنے تمام ساحلی علاقے اور بندر گاہیں 24گھنٹے کے اندر برطانوی فوج کے حوالے کردے۔اس دھمکی آمیز پیغام کے بعد سلطان کو پوری طرح یہ احساس ہوگیا کہ دغا باز انگریز قوم کے لیے سیاسی اخلاقیات اور معاہدوں کی پاسداری کوئی معنی نہیں رکھتی جب کہ ہندوستانیوں نے ہمیشہ دوستانہ معاہدوں کا احترام کیا ہے۔
ٹیپو سلطان کی غیرتِ ایمانی جوش میںآگئی اور اس نے مزید جھکنے کے بجائے میدانِ جنگ میں فیصلہ کرنے کو ترجیح دی۔ اس نے اعلان کیا کہ ’شیر کی ایک دن کی زندگی گیدڑ کی ہزار دن کی زندگی سے بہتر ہے۔‘‘ اور پھر ایک دن حملہ آور فوج کے ساتھ خوفناک جنگ ہوئی۔ سلطان اپنے جانباز سپاہیوں کے ساتھ زخمی شیر کی طرح برطانوی فوجوں پر ٹو ٹ پرا۔ سلطانی فوج کی یہ یلغار بہت شدید تھی انگریزوں کے پاؤں اکھڑنے لگے۔ سلطان نے اپنے ایک معتمد سپہ سالار کو اپنے دستے کے ساتھ آگے بڑھ کر دشمن کو تباہ کردینے کا حکم دیالیکن یہ سردار قمر الدین خان انگریزوں کے ہاتھ اپنی غیرت، حمیت اور ایمان کا سودا کرچکاتھا، اس نے اپنے سواروں کو آگے بڑھایا لیکن پھر وہ اس کے حکم پر پلٹے اور خود سلطان کی فوج پر ہی ٹوٹ پرے، قمرالدین خاں کی اس غداری سے سلطانی قوم کو پسپا ہونا پڑا اور انگریزوں نے ایک طرح سے اس معرکہ میں فتح حاصل کرلی۔
ابھی ٹیپو سلطان سنبھل بھی نہیں پایاتھا کہ اسے معلوم ہوا کہ انگریزوں کی دوسری فوج جنرل اسٹیورٹ کی قیادت میں بڑھی چلی آرہی ہے۔ اس فوج کو میسور پہنچنے سے پہلے ہی روک دینے کی غرض سے سلطانی لشکر نے کوچ کیا، دو دن کے مسلسل سفر کے بعد تیزی سے آرہی انگریز فوج کو جالیا اور اس پرایسا زبردست حملہ کیا کہ انگریز سپاہی ٹھہر نہ سکے، ان کے بہت سے سپاہی اور افسر ہلاک ہوئے۔ انگریز ی فوج کے بہت سے سپاہی بھاگ کر جنگلوں میں جاچھپے۔ ٹیپو سلطان کی تلوار انگریزوں پر قہر بن کر گری تھی۔ سلطان کے جاسوسوں نے اطلاع دی تھی کہ شکست خوردہ انگریز سپاہی اب لڑنا نہیں چاہتے۔ٹیپو سلطان اپنی فاتح فوج کے ساتھ سری رنگا پٹنم کی طرف روانہ ہوگیا۔خبر آچکی تھی کہ جنرل ہارس شہر کی طرف بڑھ رہاہے۔ سلطانی فوج سری رنگا پٹنم کے قلعے میں پہنچ گئی۔ جنرل ہارس کی فوجوں نے شہر اور قلعے پر آگ اور توپ کے گولے برسانے شروع کردیے۔ ٹیپو کی فوج میں اس کے انتہائی با اعتماد وزیر پورنیہ پنڈت اور میر صادق جیسے غدار وں کی خفیہ سازشیں جاری تھیں۔ قلعے پر آگ برس رہی تھی اورلا تعداد زندگیاں اس کی نذر ہورہی تھیں ایسے میں سلطان سے اس کے کچھ خاص مشیروں نے کہا کہ وہ سرنگوں کی راہ سے قلعے سے فرار ہوجائے اور باہر رہ کر انگریزوں سے مصالحت کی کوشش کرے، لیکن اب پیچھے ہٹنا سلطان کے ایمانی جذبے اور وطنی غیرت کے منافی تھا،سلطان نے تو آخری وقت تک انگریزوں سے مقابلہ کرنے کی قسم کھائی تھی۔ 
4؍مئی 1799کی صبح جب سلطان فجر کی نماز سے فارغ ہوا تو اس کومشیروں نے پھر یہ مشورہ دیا کہ اس نازک وقت میں جب کہ انگریزی فوجوں نے قلعے کو پوری طرح نرغے میں لے لیا ہے، آپ اس نازک وقت میں اپنے بچوں کو یتیم ہونے سے بچانے کے لیے انگریزوں سے مصالحت کی کوشش کریں۔ سلطان نے یہ بات سن کر کہا: 
’’یہ ملک خدا داد ہماری رعیت اور بالخصوص مسلمانوں کی ملکیت ہے۔ ہم نے اپنے وطن عزیز کی حفاظت کے لیے مسلسل کوشش کی ہے،میں جانتا ہوں کہ میرے غدار وزراء اورافسران اس کی تباہی میں لگے رہے، اب وہ اپنی غداری اور بداعمالی کا مزہ چکھیں گے۔ جہاں تک میری ذات کا سوال ہے میں اپنی جان مال،آل واولاد کو اپنے دین پر قربان کرچکا، انسان کو صرف ایک بار موت آتی ہے، موت سے خوفزدہ ہونا بے معنی ہے۔‘‘
سری رنگا پٹنم کے قلعے میں مہتاب باغ کا مورچہ بے حد اہم تھا جہاں سلطان کا نہایت وفادار اور بہادر افسر سیدغفا راپنے جانثاروں کے ساتھ تعینات تھا۔ یہ یقین کے ساتھ سمجھا جاتا تھا کہ سید غفارجیسے سپہ سالار کی موجودگی میں انگریز فوجوں کی کامیابی ممکن نہیں ہے، اس لیے سلطان کے نمک حرام وزیرمیر صادق اور اس کے سازشی ساتھیوں نے سید غفار کو کسی طرح وہاں سے ہٹوا کر قتل کرادیااور غدار سپاہیوں نے مہتاب باغ کا دروازہ کھول دیا۔ انگریزی فوج قلعے میں داخل ہوگئی۔ وہ دوپہر کا وقت تھا۔ سلطان خاصہ تناول کرنے بیٹھا تھا، ابھی پہلا لقمہ اٹھایا ہی تھا کہ اس کو سید غفار کی شہادت اور قلعے کا دروازہ کھلنے کی خبر ملی۔ سلطان شہادت کی راہ پر آگے بڑھنے کے لیے اٹھ کھڑا ہوا، اس کے وفادار سپاہی ساتھ تھے۔ سلطان نے ہتھیار سنبھالے، گھوڑے پر سوار ہو اور دوسرے دروازے سے باہر نکل کر انگریز حملہ آوروں کے لشکر جرار سے جا بھڑا۔ سلطان نے بڑی دلیری کے ساتھ جنگ کی اور دشمنوں کی لاشوں کے ڈھیر لگادیے۔ چونکہ انگریزی سپاہ کی تعدادبہت زیادہ تھی اس لیے اس نے پیچھے ہٹ کر قلعے میں داخل ہونے کی کوشش کی لیکن نمک حرام میر صادق نے وہ دروازہ ہی بند کرادیا جس سے سلطان باہر نکلاتھا۔ اب زندگی اور موت کے فیصلے کے سوا کوئی چارہ نہ رہا۔ شیر نے پلٹ کر ظالم انگریزوں پر حملہ کیا،وہ دوپہر سے مسلسل لڑرہاتھا، زخمی بھی ہوچکاتھا، اسے کئی گولیاں لگ چکی تھیں،اب دن ڈھل رہاتھا، سلطان پیاس سے بے حال تھا، اس نے اپنے خادم راجہ خان سے پانی مانگا، لیکن وہ کمبخت بھی غداروں کے ساتھ مل چکاتھا، اس کے پاس مشکیزے میں پانی تھا لیکن اس نے اسی طرح شقاوت کا مظاہرہ کیا جیسے حضرت امام حسینؓ کے ساتھ یزیدیوں نے کربلا کے میدان میں کیاتھا۔ تبھی دشمن کی ایک گولی سلطان کا سینہ چیر گئی، زخمی شیر زمین پر گرگیا لیکن وہ شیر دل اس حالت میں بھی جلدی سے اٹھ کھڑا ہوا اس کی تلوار اب بھی ہاتھ میں تھی، خون میں نہاتے ہوئے اس زخمی مجاہد نے جھپٹ کر حملہ کیا اور کئی انگریزوں کو جہنم رسید کردیا۔ دشمنوں نے اس پر گولیوں کی بوچھارکردی، ایک گولی کپنٹی پر لگی اور آزادیِ وطن کا یہ جانباز مجاہد شہادت کے مرتبے پر فائز ہوگیا۔ ملک کو آزاد کرانے والی تلوار گم ہوگئی جیسا کہ ایک شاعر نے ’شمشیر گم شد‘کے الفاظ سے شہادت کی تاریخ کے اعداد برآمد کیے ہیں۔
غدار میرصادق کا انجام یہ ہواکہ سلطان کی شہادت سے قبل وہ ایک کھڑکی سے باہر نکل جانا چاہتاتھا کہ سلطان کے ایک وفادار دل سوختہ سپاہی نے اس سے کہا، ’’مردوداپنے آقا کو پھنسوا کر کہاں جاتا ہے۔‘‘ یہ کہہ کر تلوار سے اس کا کام تمام کردیا۔
ٹیپو سلطان کی شہادت انگریزوں کے لیے سب سے بڑی کامیابی تھی، ٹیپو سلطان کی شہادت کی خبر پاکر جنرل ہارس نے بے حد معنی خیز نعرہ لگایاتھا۔ ’’اب ہندوستان ہماراہے۔‘‘
میسور کی آبادی اکثریت میں ہندو تھی۔ ہندوؤں کے ساتھ ٹیپو سلطان کے دوراقتدار میں کہیں بھی نازیبا اور غیر منصفانہ برتاؤ کیاگیاہو اس کا کوئی ثبوت نہیں ملتا،اس کے برعکس اپنی ہندو رعایا کے ساتھ اس کے محبت آمیز رویے کی سیکڑوں مثالیں موجود ہیں۔ ٹیپو سلطان کے دربار میں آخر تک اعلیٰ ترین عہدے ہندوؤں کو ملے ہوئے تھے، پورنیہ پنڈت ٹیپو کا وزیر اعظم تھا، کرشن راؤ بھی وزیر تھا۔ ان دونوں کا دربار میں بے حد اثر اور دبدبہ قائم تھا۔ ٹیپو کے دربار میں سفارتوں اور نقیبوں کا کام کرنے کے لیے بہت سے برہمن مقرر تھے۔ دربار میں پجاریوں اور جیوتشیوں کو خاص اہمیت حاصل تھی۔ شرنگیری مٹھ کے شنکر اچاریہ سوامی سچد انند شاستری سے ٹیپو کو خاص عقیدت تھی، شنکر اچاریہ کے نام اس کے 30سے زائد خطوط موجود ہیں جن سے ٹیپو سلطان کی آچاریہ سے دوستی اور محبت کا پتہ چلتاہے۔ ٹیپو سلطان راسخ العقیدہ مسلمان تھا لیکن اپنی قلمرو میں اس نے متعدد مندروں کو بڑی بڑی جاگیریں دیں جن میں ننجم گڈا، سری رنگا پٹنم اور میلکوٹ کے مندر شامل ہیں بنگلور میں ٹیپو سلطان کے زنانہ محل کے عین سامنے سری وینکٹ رامن کا مندر اور محلات بالکل ملے ہوئے ہیںیہ مشہور اورقدیم منادر سلطان کی مذہبی رواداری کے شاہد ہیں۔
شہید وطن ٹیپو سلطان نے اپنی سلطنت میں عدل ومساوات کا پرچم بلند کیا۔ جاگیر داری کا خاتمہ کیا اور ملک کواقتصادی طور پر اس طرح خوشحال کردیا کہ وہ دنیا کا عظیم مدبر حکمراں بن گیا۔ ٹیپو سلطان کی حکومت کے بارے میں برطانوی پارلیمنٹ کے ایک ممبر نے لکھاتھا۔’’ میسور ہندوستان میں سب سے زیادہ سرسبز علاقہ ہے۔ یہاں ٹیپو کی حکمرانی ہے، میسور کے باشندے ہندوستان میں سب سے زیادہ خوشحال ہیں۔
سلطان ٹیپو نے رعایا کی بہبودی کے لیے بینک کھولے جس سے چھوٹے سرمایہ کاروں کو زیادہ منافع ملتاتھا۔بینکوں کے ماتحت ضروریات زندگی کی دکانیں کھولی گئی تھیں، ٹیپو سلطان نے تجارت کے فروغ کے لیے ہر ممکن طریقہ اختیار کیا۔ ریاست میں پولس کا معقول بندوبست تھا۔ جس افسر کے علاقے میں کوئی واردات ہوتی اس کا ذمہ دار وہ پولس افسر ہوتاتھا اگر وہ ملزم کا سراغ نہ لگاسکتاتو تاوان کا ذمہ دار قرار پاتاتھا۔سلطان نے ہندوستان میں پہلی بار بحری فوج قائم کرنے کی کوشش کی اور حربی آلات بنانے کے شاندار کارخانے قائم کیے، جنگ میں راکٹ استعمال کرنے کا تصور سلطان نے سب سے پہلے پیش کیا۔
ہندوستان کی تاریخِ آزادی قربانیوں سے بھری ہوئی ہے۔ ہر مذہب وملت کے مجاہدین نے بڑے بڑے کارنامے انجام دیے ہیں لیکن شہیدِ وطن ٹیپو سلطان جیسا لائق حکمراں اور سرفروش مجاہد آزادی کسی اور ہندوستانی قوم نے آج تک پیدا نہیں کیا۔